तवायफ
मैं खामोश सहमी बैठी सबकी बाते सुन रही थी, तरह तरह की बातें ऐसी बाते जो मेरे कानो में चीख-चीख के कह रही थी तू जीने के हकदार नहीं, तेरा मर जाना ही बेहतर हैं।
कुछ हाथ मेरी ओर सवाल बनकर आ रहे थे. मेरी मजबूरियों मेरे हालात पर ऊंगली उठा रहे थे, वो हाथ जिन्होंने कभी खुद मेरे जिस्म से मेरे कपड़ो को अलग किया था,बड़े शौक से मेरे जिस्म का मोल-भाव तय किया था।
मैं समझ नहीं पाई उन सवालातों को और खामोशी का मौन धारण किये वहाँ से चली आई, सही और गलत के बीच में खुद को ढूँढने लगी, इक अदना सा सवाल मेरा, की सब कुछ अगर ईश्वर द्वारा रचित है, लिखित है, नैतिक है, तो मैं नैतिक क्यों नहीं… अगर मैं अनैतिक तो तुम्हारा ईश्वर अनैतिक क्यों नहीं…?
पर इन सवालो का जवाब मेरे पास नहीं, शायद किसी के भी पास नहीं, हाँ पर मैं खुश हूँ की मैंने कभी किसी को नाखुश नहीं किया, मैंने कभी कोई पर्दा नहीं किया, मैंने खुद भूखी रहकर जाने कितनों की भूख मिटाई है।
वो लोग जो बंद किवाड़ों में मुझ पर रूपयो की बारिश किया करते थे, वो लोग जो शराब और जिस्म के नशे में हर शाम अपने घरो की मर्यादाओं को कुचला करते थे,वो लोग जो जंगली भेडियों के जैसे मुझे गोश्त की तरह नोंचा करते थे, आज वो ही लोग उस चारदीवारी के बाहर आकर मुझे ईज्जत के सर्टिफिकेट बाँटते हैं…!
बस एक सवाल रेंग रेंग के मन को खुरेदता हैं कि क्यूँ एक तवायफ को औरत होने तक का भी हक नहीं दिया जाता…
मैंने जन्म से तवायफ होना स्वीकारा नहीं, अपनी मजबूरियो के लिए खुद को बेचा अपने मुल्क को नहीं, अपने ईमान को नहीं।
छोड़ो जाने दो मैं ईज्जत के लायक नहीं ना ही सवाल करने का हक रखती हूँ…
क्योंकि मैं अपनी जात जानती हूँ,
मैं एक तवायफ हूँ…
मैं बस एक तवायफ़ हूँ….!!
–विश्वास टम्टा
Kuch to babat hai vishwash daa mai yll❤️❤️
Waah