कवि सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्हें ‘प्रकृति के सुकुमार’ कवि के नाम से भी जाना जाता है। सुमित्रानंदन पंत का जन्म आज ही के दिन यानी 20 मई 1900 को अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गांव में हुआ था। पन्त के जन्म के कुछ समय बाद ही इनकी माता सरस्वती देवी का निधन हो गया था। जिसके बाद इनका पालन-पोषण दादीजी द्वारा किया गया। पन्त सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। इनके बचपन का नाम गोसाई दत्त था। लेकिन पन्त को अपना नाम पसंद न होने के कारण उन्होंने अपना नाम बदल लिया। सुमित्रानंदन पंत ने महज 7 साल की उम्र से कविता लिखना शुरू कर दिया था।
सुमित्रानंदन पन्त की काव्य कृतियां और पुरस्कार-
सुमित्रानंदन पंत की कुछ काव्य कृतियां इस प्रकार हैं- ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि शामिल हैं। पन्त के जीवन काल में 28 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। जिनमें कुछ कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध आदि हैं। वह अपने समय के विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी कवि के तौर पर जाने जाते थे। चिदम्बरा पर इन्हे 1968 मे ज्ञानपीठ पुरस्कार से ,काला और बूढ़ा चांद पर साहित्त्य अकादमी पुरस्कार (1960) से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सुमित्रानंदन पन्त के हिंदी साहित्य के योगदान को देखते हुए साल 1961 पद्म भूषण, साल 1968 सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
बचपन का घर और मृत्यु-
सुमित्रानंदन पन्त ने कौसानी में जिस घर में अपना बचपन गुजारा, वर्तमान में उस घर को सुमित्रानंदन पन्त वीथिका के नाम से एक संग्रहालय में बदल दिया गया है। यहां पर पंत के व्यक्तिगत प्रयोग की जाने वाले सामान जैसे कपड़े, छायाचित्र, कविताओं की मूल पांडुलिपियां व पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है।
इस घर में एक पुस्तकालय भी बना हुआ है। जिसमें पंत की व्यक्तिगत और उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह भी है। पंत की स्मृति में हर साल संग्रहालय में पंत व्याख्यान माला आयोजन किया जाता है। हिंदी साहित्य का प्रकाशपुंज संगम नगरी इलाहाबाद में 28 दिसम्बर 1977 को हमेशा के लिए बुझ गया।
कुछ प्रमुख रचनाएं-
“मोह”
छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,बाले!
तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्र-धनुष के रंगों को,
तेरे भू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह,तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि!श्रवन?
भूल अभी से इस जग को !
ऊषा सस्मित किसलय- दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन ?
भूल अभी से इस जग को!
–सुमित्रानंदन पंत।
“मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे”
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूंगा
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला।
सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गये।
मै हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर।
मैं अबोध था, मैंने ग़लत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूलीं, शरदें मुस्काईं
सी-सी कर हेमन्त कंपे, तरु झरे, खिले वन।
और जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहलवश आंगन के कोने की
गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे।
भू के अंचल में मणि माणिक बांध दिए हों।
मैं फिर भूल गया था छोटी सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन।
किन्तु एक दिन, जब मैं संध्या को आंगन में
टहल रहा था, तब सह्सा मैंने जो देखा,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से।
देखा आंगन के कोने में कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं।
छाता कहूं कि विजय पताकाएं जीवन की;
या हथेलियां खोले थे वे नन्हीं, प्यारी –
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से।
निर्निमेषं, क्षण भर मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोपे थे मैंने आंगन में
और उन्हीं से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आंखो के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हे नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।
तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तों से लद भर गयी झाड़ियां
हरे भरे टंग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा, आंगन में लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मैं अवाक रह गया वंश कैसे बढ़ता है
यह धरती कितना देती है, धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को
बचपन में, छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूं।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमें मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की – जीवन क्ष्रम से हंसे दिशाएं
हम जैसा बोएंगे वैसा ही पाएंगे।
–सुमित्रानंदन पंत।